तप का अर्थ
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पीड़ा सहना और घोर कड़ी साधना करना और मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानंद के अनुसार 'जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसके मैल को दूर किया जाता है, उसी प्रकार सगुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना तप है।
गीता में तप तीन प्रकार के बताए गए हैं-शारीरिक जो शरीर से किया जाए।
वाचिक - जो वाणी से किया जाए और मानसिक- जो मन से किया जाए। देवताओं, गुरुओं
और विद्वानों की पूजा और इन लोगों की यथायोग्य सेवा-सुश्रषा करना, ब्रह्मचर्य और अहिंसा
शारीरिक तप हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- शरीर के बीजभूत तत्व की रक्षा करना और ब्रह्म में
विचरना या अपने को सदा परमात्मा की गोद में महसूस करना। किसी को मन, वाणी और
शरीर से हानि न पहुंचाना अहिंसा है। हिंसा और अहिंसा केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि
वाचिक और मानसिक भी होती हैं। वाणी के तप से अभिप्राय है ऐसी वाणी बोलना जिससे
किसी को हानि न पहुंचे। सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी के
तप के साथ ही स्वाध्याय की बात भी कही गयी है। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रंथों का नित्य
पाठ करना और अपने द्वारा किए जा रहे नित्य कर्मों पर भी विचार करना स्वाध्याय है। मन को
प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और चित्त की शुद्ध भावना ये सब मन के तप हैं।
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पीड़ा सहना और घोर कड़ी साधना करना और मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानंद के अनुसार 'जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसके मैल को दूर किया जाता है, उसी प्रकार सगुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना तप है।
गीता में तप तीन प्रकार के बताए गए हैं-शारीरिक जो शरीर से किया जाए।
वाचिक - जो वाणी से किया जाए और मानसिक- जो मन से किया जाए। देवताओं, गुरुओं
और विद्वानों की पूजा और इन लोगों की यथायोग्य सेवा-सुश्रषा करना, ब्रह्मचर्य और अहिंसा
शारीरिक तप हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- शरीर के बीजभूत तत्व की रक्षा करना और ब्रह्म में
विचरना या अपने को सदा परमात्मा की गोद में महसूस करना। किसी को मन, वाणी और
शरीर से हानि न पहुंचाना अहिंसा है। हिंसा और अहिंसा केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि
वाचिक और मानसिक भी होती हैं। वाणी के तप से अभिप्राय है ऐसी वाणी बोलना जिससे
किसी को हानि न पहुंचे। सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी के
तप के साथ ही स्वाध्याय की बात भी कही गयी है। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रंथों का नित्य
पाठ करना और अपने द्वारा किए जा रहे नित्य कर्मों पर भी विचार करना स्वाध्याय है। मन को
प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और चित्त की शुद्ध भावना ये सब मन के तप हैं।