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जमाना

Harcore_Ankit

Epic Legend
Chat Pro User
वो जमाना भी क्या जमाना था , जिस जमाने में मेरी रूह रहा करती थी ,
हस्ती ठिठोली करती थी उसकी आंखों से , और खुशियां रो के बयां करती थी ,
जाने कहा खोए वो दिन , जिस दिन में मेरी सांसे हवाओं की तरह बहा करती थी ,
न बोलने का खौफ , न नासमझे जाने का डर था ,
एक में था और मेरा साहिल था ,

किसी जमाने में छुपा हुआ है आज भी मेरा दिल ,
आंखें बंद करूं तो सब याद आता है ,
जैसे कोई रूठा साथी बारात लिए आता है ,
कोई मसला नहीं था , जिंदगी में कोई रूखापन नहीं था ,
मैं था और मेरे तन्हाई में मेरे साथ मेरे यादों का गुलाब था ,
रोज पानी से नहलाता में उसे , वो मेरे लिए इतना खास था ,
यादें रह गई है अब बस उसके पंखड़ियों की , जो जाने कब से मेरे किताबें के पन्नों में छुपी गुफ्तगू करती है ,
चंद शायरियां बनाती है , और उसके कांटो वाली डंडियां मुझे चुभाती है ,
खोल भी नहीं पाता मेरे दर्द का पिटारा ढंग से , ओर वो फिर भी मेरे लिए सिसकियां लगाती है ,
एक रोज कहती है : सुनो न , आज दिन भर पढ़ो मुझे ,
एक उमर से देखा नहीं तुम्हे , आज जी भर सांसों में भरो मुझे ,
सुनो न , तुम इस कदर खास हो मेरे लिए , मेरी इन सूखी पंखड़ियों के लिए तुम्हारे लबों से तर वो बारिश का पानी ,
उस सावन के सुहाने मौसम से कम नहीं , तुम्हे सुनती हु तो , मैं ताजी हो जाती हु , जैसे किसी ने अभी बोया हो मुझे गीली मिट्टी में ,
तुम्हे पाती हु तो न में फिर से अमर हो जाती हु ,
सुनो न , तुम रोया करो मेरे लिए , ताकि में कुछ और लम्हे जिंदा रह सकू , इन मुर्दों की दुनिया में ,
जहां लोग वफ़ा और इज्जत को लूटने के बाद , भुल जाते है इंसान को एक याद बना के ,
मैं तुम्हारे पास आती हु जब वैसे और जब तुम खामोश होके मुझे सुनते हो ,
और मेरी उन पंखड़ियों को चुनते हो , जो देख ही न सका कोई तुम्हारे सिवा ,
तो में फिर से हसीन हो जाती हो , मुस्कुराती हु तुम्हे बिना बताए ओर फिर से तुम्हारी हो जाती हु ।

तुम्हे खुशी नहीं होती क्या अब मुझे मुरझाया पाके तुम्हारे जहन में , पूछा उसने एक रोज -
मैं बोल न पाया - सुनो न , मेरे दिल के हालात तुम्हारी वजह से आज भी रंगीन है ,
तुम्हें जन्मों जन्मों के लिए पाके न जाने क्यों इतने मसरूफ है , संगीम है , की बोल ही नहीं पाते तुमसे ,
मिलके भी तुमसे नजरे चुराते है , जैसे तुम कोई राज पढ़ लोगी इनका , ओर फिर उसके बाद बहुत ठिठोलिया करोगी ,
मजाक बनाओगी फ़िरसे मेरे उभरे छिले लम्हों का , जिनमे तुम हो सदा के लिए ,
और वो मैं नहीं चाहता कोई सुने मेरे आंखों से मेरे सिवा और फिर दोबारा नकार दे मुझे समय से पहले समय होकर ,
तुम आज भी वैसे ही याद हो मुझे , जैसे तुम हस्ते हुए बहारों को अपनी हवा में बहाते हुए लड़ रही थी ,
डाट रही रही थी किसी ग्राहक को तुम्हारी मेहनत के एवज में कम पैसे देने पर ,
ओर मैं तुम्हारी वो डांट सुनके तुम्हारे पास आके बोला था , जो मिल रहा है रख लो अगली बार ज्यादा वसूल लेना ,
ओर तुमने कहा था : हम इतने अमीर होते तो चंद टुकड़ों के लिए टुकड़े न बेचते और अपनी मेहनत का हिस्सा लेते है और उतना ही लेंगे ज्यादा नहीं ,
ये सुनके में मेरे जहन में कपकपाया था , मुझे लगा था कैसे ये सुनने के बाद भी में वहां खड़ा होके ,तुमसे नजरे मिला पा रहा हु ,
वो चंद बाते तुम्हारी किसी की भी आँखें खोलने की तारीख है ,
में चुपचाप तुम्हे सुनता रहा उन टुकड़ों के एवज में लड़ते हुए , ओर तुम जीती भी इस मक्कार दुनिया से ,
हमेशा जीतती हो जानता हु , ओर हर रोज घुट के मरती हो ये भी जानता हु ,
न जाने क्या चीज भा गई मुझे तुम्हारे हुनर की , जो रोज तुम्हारी गली से होकर गुजरने लगा,
शायद उस शिरत की एक झलक के लिए जो मैने इंसान परस्तो के जहां में सिर्फ तुम्हारे जहन में देखी ,
याद हो तुम मुझे ओर वो दिन भी जब मैने पहली बार तुम्हे चाय के लिए पूछा था , ओर तुमने कहा था समय नहीं है ,
ओर मैने उस समय के टुकड़े तुमसे खरीदे थे , तुम्हारी कुछ झलकियां ओर अफसानों के लिए ,
तुम्हारी बातों का वो उलूज, जब तुम ठहर के बोलती थी ,
इंसान बनाया भी तो , इंसानों जैसे लिबाज में सिर्फ एक कठपुतली बना दिया है चंद मोहरों के ,
जैसे रेत फिशलती है हाथों से वैसे ही मेरे अंदर का वजूद धीरे धीरे मरते जा रहा है उस कालकोठरी में ,
जीने की आदत लगी तो है पर जीने के हसीन लम्हे कोई और चुन लेता है मेरे ,
खुश्बू ये जो इतर की महक रही है मेरे बदन से , मेरे अंदर की सड़ांध को छुपाने के लिए है बस ,
ये जो रंग रूप सजा हुआ है सिर्फ दुनिया का एक नजरिया है मेरे लिए ,
मैं अंदर से क्या - क्या हु कोई नहीं जानता , बचपन से तुम्हारा कोई घर नहीं जब तुमने ये बातों बातों में बोला था जिसका जवाब में न दे सका कभी उसका मलाल मुझे आज भी है
न जाने कब कैसे क्यों नहीं पता मुझे, पर थक जाने के बाद दुनिया के इस ओझेपन से सिर्फ तुम्हारे चंद लब्ज़ सुनने का दिल होता था जो मेरे सोई आत्मा को कुरेद देते थे ,
तुम धीरे धीरे मेरे जहन में आ गई और वही रह गई तुम्हे ये बता भी न सका ।
वैसे,
वो जमाना खरीद लिया है मैने जिसे तुम कालकोठरी कहती थी , तुम्हारी आवाजें सुनता हु इनमें , दीवारों पर लगे खरोंच के निशान जब नजर आते है मुझे
तो एक दबा हुआ इंसान फिर मर जाता है अंदर का , तुम इतनी करीब थी मेरे मैं फिर भी इस जमाने के पहिए तोड़ के तुमसे निकाह न कर पाया और आज इन चारदीवारों में तुम्हारे होने का एहसास हर घड़ी खोज रहा हु तुम्हारे दिए हुए गुलाब को मेरी कभी न पढ़ी जाने वाली किताब में रख के ।।


वो जमाना भी क्या जमाना था जब में गमगीन होके भी खुशमिजाजी में रहता था , आज एक जमीन के टुकड़े में सोया पड़ा हु ।
"वो जमाना अब मिट्टी में दबा है,
मैं भी उसी के नीचे सोया हूँ।
फर्क इतना है—वो अब भी ज़िंदा है मुझमें,
और मैं अब भी उसका क़ैदी।"
 
Last edited:
वो जमाना भी क्या जमाना था , जिस जमाने में मेरी रूह रहा करती थी ,
हस्ती ठिठोली करती थी उसकी आंखों से , और खुशियां रो के बयां करती थी ,
जाने कहा खोए वो दिन , जिस दिन में मेरी सांसे हवाओं की तरह बहा करती थी ,
न बोलने का खौफ , न नासमझे जाने का डर था ,
एक में था और मेरा साहिल था ,

किसी जमाने में छुपा हुआ है आज भी मेरा दिल ,
आंखें बंद करूं तो सब याद आता है ,
जैसे कोई रूठा साथी बारात लिए आता है ,
कोई मसला नहीं था , जिंदगी में कोई रूखापन नहीं था ,
मैं था और मेरे तन्हाई में मेरे साथ मेरे यादों का गुलाब था ,
रोज पानी से नहलाता में उसे , वो मेरे लिए इतना खास था ,
यादें रह गई है अब बस उसके पंखड़ियों की , जो जाने कब से मेरे किताबें के पन्नों में छुपी गुफ्तगू करती है ,
चंद शायरियां बनाती है , और उसके कांटो वाली डंडियां मुझे चुभाती है ,
खोल भी नहीं पाता मेरे दर्द का पिटारा ढंग से , ओर वो फिर भी मेरे लिए सिसकियां लगाती है ,
एक रोज कहती है : सुनो न , आज दिन भर पढ़ो मुझे ,
एक उमर से देखा नहीं तुम्हे , आज जी भर सांसों में भरो मुझे ,
सुनो न , तुम इस कदर खास हो मेरे लिए , ममेरी इन सूखी पंखड़ियों के लिए तुम्हारे लबों से तर वो बारिश का पानी ,
उस सावन के सुहाने मौसम से कम नहीं , तुम्हे सुनती हु तो , मैं ताजी हो जाती हु , जैसे किसी ने अभी बोया हो मुझे गीली मिट्टी में ,
तुम्हे पाती हु तो न में फिर से अमर हो जाती हु ,
सुनो न , तुम रोया करो मेरे लिए , ताकि में कुछ और लम्हे जिंदा रह सकू , इन मुर्दों की दुनिया में ,
जहां लोग वफ़ा और इज्जत को लूटने के बाद , भुल जाते है इंसान को एक याद बना के ,
मैं तुम्हारे पास आती हु जब वैसे और जब तुम खामोश होके मुझे सुनते हो ,
और मेरी उन पंखड़ियों को चुनते हो , जो देख ही न सका कोई तुम्हारे सिवा ,
तो में फिर से हसीन हो जाती हो , मुस्कुराती हु तुम्हे बिना बताए ओर फिर से तुम्हारी हो जाती हु ।

तुम्हे खुशी नहीं होती क्या अब मुझे मुरझाया पके तुम्हारे जहन में , पूछा उसने एक रोज -
मैं बोल न पाया - सुनो न , मेरे दिल के हालात तुम्हारी वजह से आज भी रंगीन है ,
तुम्हें जन्मों जन्मों के लिए पाके न जाने क्यों इतने मसरूफ है , संगीम है , की बोल ही नहीं पाते तुमसे ,
मिलके भी तुमसे नजरे चुराते है , जैसे तुम कोई राज पढ़ लोगी इनका , ओर फिर उसके बाद बहुत ठिठोलिया करोगी ,
मजाक बनाओगी फ़िरसे मेरे उभरे छिले लम्हों का , जिनमे तुम हो सदा के लिए ,
और वो मैं नहीं चाहता कोई सुने मेरे आंखों से मेरे सिवा और फिर दोबारा नकार दे मुझे समय से पहले समय होकर ,
तुम आज भी वैसे ही याद हो मुझे , जैसे तुम हस्ते हुए बहारों को अपनी हवा में बहाते हुए लड़ रही थी ,
डाट रही रही थी किसी ग्राहक को तुम्हारी मेहनत के एवज में कम पैसे देने पर ,
ओर मैं तुम्हारी वो डांट सुनके तुम्हारे पास आके बोला था , जो मिल रहा है रख लो अगली बार ज्यादा वसूल लेना ,
ओर तुमने कहा था : हम इतने अमीर होते तो चंद टुकड़ों के लिए टुकड़े न बेचते और अपनी मेहनत का हिस्सा लेते है और उतना ही लेंगे ज्यादा नहीं ,
ये सुनके में मेरे जहन में कपकपाया था , मुझे लगा था कैसे ये सुनने के बाद भी में वहां खड़ा होके ,तुमसे नजरे मिला पा रहा हु ,
वो चंद बाते तुम्हारी किसी की भी आँखें खोलने की तारीख है ,
में चुपचाप तुम्हे सुनता रहा उन टुकड़ों के एवज में लड़ते हुए , ओर तुम जीती भी इस मक्कार दुनिया से ,
हमेशा जीतती हो जानता हु , ओर हर रोज घुट के मरती हो ये भी जानता हु ,
न जाने क्या चीज भा गई मुझे तुम्हारे हुनर की , जो रोज तुम्हारी गली से होकर गुजरने लगा,
शायद उस शिरत की एक झलक के लिए जो मैने इंसान परस्तो के जहां में सिर्फ तुम्हारे जहन में देखी ,
याद हो तुम मुझे ओर वो दिन भी जब मैने पहली बार तुम्हे चाय के लिए पूछा था , ओर तुमने कहा था समय नहीं है ,
ओर मैने उस समय के टुकड़े तुमसे खरीदे थे , तुम्हारी कुछ झलकियां ओर अफसानों के लिए ,
तुम्हारी बातों का वो उलूज, जब तुम ठहर के बोलती थी ,
इंसान बनाया भी तो , इंसानों जैसे लिबाज में सिर्फ के कठपुतली बना दिया है चंद मोहरों के ,
जैसे रेत फिशलती है हाथों से वैसे ही मेरे अंदर का वजूद धीरे धीरे मरते जा रहा है उस कालकोठरी में ,
जीने की आदत लगी तो है पर जीने के हसीन लम्हे कोई और चुन लेता है मेरे ,
खुश्बू ये जो इतर की महक रही है मेरे बदन से , मेरे अंदर की सड़ांध को छुपाने के लिए है बस ,
ये जो रंग रूप सजा हुआ है सिर्फ दुनिया का एक नजरिया है मेरे लिए ,
मैं अंदर से क्या - क्या हु कोई नहीं जानता , बचपन से तुम्हारा कोई घर नहीं जब तुमने ये बातों बातों में बोला था जिसका जवाब में न दे सका कभी उसका मलाल मुझे आज भी है
न जाने कब कैसे क्यों नहीं पता मुझे, पर थक जाने के बाद दुनिया के इस ओझेपन से सिर्फ तुम्हारे चंद लब्ज़ सुनने का दिल होता था जो मेरे सोई आत्मा को कुरेद देते थे ,
तुम धीरे धीरे मेरे जहन में आ गई और वही रह गई तुम्हे ये बता भी न सका ।
वैसे,
वो जमाना खरीद लिया है मैने जिसे तुम कालकोठरी कहती थी , तुम्हारी आवाजें सुनता हु इनमें , दीवारों पर लगे खरोंच के निशान जब नजर आते है मुझे
तो एक दबा हुआ इंसान फिर मर जाता है अंदर का , तुम इतनी करीब थी मेरे मैं फिर भी इस जमाने के पहिए तोड़ के तुमसे निकाह न कर पाया और आज इन चारदीवारों में तुम्हारे होने का एहसास हर घड़ी खोज रहा हु तुम्हारे दिए हुए गुलाब को मेरी कभी न पढ़ी जाने वाली किताब में रख के ।।


वो जमाना भी क्या जमाना था जब में गमगीन होके भी खुशमिजाजी में रहता था , आज एक जमीन के टुकड़े में सोया पड़ा हु ।
"वो जमाना अब मिट्टी में दबा है,
मैं भी उसी के नीचे सोया हूँ।
फर्क इतना है—वो अब भी ज़िंदा है मुझमें,
और मैं अब भी उसका क़ैदी।"
bahud khud , lajawab aur padhke khamos bhi

just 2 line

waise bahut sawal hoti thi in labjo me
phir bhi baya na kar paati thi jan sabdo me
udhti titliya thi main khusiya bharne nikli thi
ukhad ye pankh rakh diye the kisi ke kabjo me
waise bahut sawal hoti thi in labjo me

khamos aakhe haari haari si main
kisi ko chubhiti, kisi ko pyari si mai
mit ke wajud phir kahi jud raha tha
khamosi ke chikhe wah sun raha tha
tuti khwab ab bunne lagi, khud ko sunne lagi
bin rang main rangne lagi thi aisi rango me
waise bahut sawal hoti thi in labjo me
.............................
 
bahud khud , lajawab aur padhke khamos bhi

just 2 line

waise bahut sawal hoti thi in labjo me
phir bhi baya na kar paati thi jan sabdo me
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khamos aakhe haari haari si main
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mit ke wajud phir kahi jud raha tha
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tuti khwab ab bunne lagi, khud ko sunne lagi
bin rang main rangne lagi thi aisi rango me
waise bahut sawal hoti thi in labjo me
.............................
Sawaal hona achai ki nishani h , jo bacha hua khawab h uski kahani h : )


Sawaal rakho sunnne waale k saamne to zindgi suhani h : )
 
Very nice wonderful
वो जमाना भी क्या जमाना था , जिस जमाने में मेरी रूह रहा करती थी ,
हस्ती ठिठोली करती थी उसकी आंखों से , और खुशियां रो के बयां करती थी ,
जाने कहा खोए वो दिन , जिस दिन में मेरी सांसे हवाओं की तरह बहा करती थी ,
न बोलने का खौफ , न नासमझे जाने का डर था ,
एक में था और मेरा साहिल था ,

किसी जमाने में छुपा हुआ है आज भी मेरा दिल ,
आंखें बंद करूं तो सब याद आता है ,
जैसे कोई रूठा साथी बारात लिए आता है ,
कोई मसला नहीं था , जिंदगी में कोई रूखापन नहीं था ,
मैं था और मेरे तन्हाई में मेरे साथ मेरे यादों का गुलाब था ,
रोज पानी से नहलाता में उसे , वो मेरे लिए इतना खास था ,
यादें रह गई है अब बस उसके पंखड़ियों की , जो जाने कब से मेरे किताबें के पन्नों में छुपी गुफ्तगू करती है ,
चंद शायरियां बनाती है , और उसके कांटो वाली डंडियां मुझे चुभाती है ,
खोल भी नहीं पाता मेरे दर्द का पिटारा ढंग से , ओर वो फिर भी मेरे लिए सिसकियां लगाती है ,
एक रोज कहती है : सुनो न , आज दिन भर पढ़ो मुझे ,
एक उमर से देखा नहीं तुम्हे , आज जी भर सांसों में भरो मुझे ,
सुनो न , तुम इस कदर खास हो मेरे लिए , मेरी इन सूखी पंखड़ियों के लिए तुम्हारे लबों से तर वो बारिश का पानी ,
उस सावन के सुहाने मौसम से कम नहीं , तुम्हे सुनती हु तो , मैं ताजी हो जाती हु , जैसे किसी ने अभी बोया हो मुझे गीली मिट्टी में ,
तुम्हे पाती हु तो न में फिर से अमर हो जाती हु ,
सुनो न , तुम रोया करो मेरे लिए , ताकि में कुछ और लम्हे जिंदा रह सकू , इन मुर्दों की दुनिया में ,
जहां लोग वफ़ा और इज्जत को लूटने के बाद , भुल जाते है इंसान को एक याद बना के ,
मैं तुम्हारे पास आती हु जब वैसे और जब तुम खामोश होके मुझे सुनते हो ,
और मेरी उन पंखड़ियों को चुनते हो , जो देख ही न सका कोई तुम्हारे सिवा ,
तो में फिर से हसीन हो जाती हो , मुस्कुराती हु तुम्हे बिना बताए ओर फिर से तुम्हारी हो जाती हु ।

तुम्हे खुशी नहीं होती क्या अब मुझे मुरझाया पाके तुम्हारे जहन में , पूछा उसने एक रोज -
मैं बोल न पाया - सुनो न , मेरे दिल के हालात तुम्हारी वजह से आज भी रंगीन है ,
तुम्हें जन्मों जन्मों के लिए पाके न जाने क्यों इतने मसरूफ है , संगीम है , की बोल ही नहीं पाते तुमसे ,
मिलके भी तुमसे नजरे चुराते है , जैसे तुम कोई राज पढ़ लोगी इनका , ओर फिर उसके बाद बहुत ठिठोलिया करोगी ,
मजाक बनाओगी फ़िरसे मेरे उभरे छिले लम्हों का , जिनमे तुम हो सदा के लिए ,
और वो मैं नहीं चाहता कोई सुने मेरे आंखों से मेरे सिवा और फिर दोबारा नकार दे मुझे समय से पहले समय होकर ,
तुम आज भी वैसे ही याद हो मुझे , जैसे तुम हस्ते हुए बहारों को अपनी हवा में बहाते हुए लड़ रही थी ,
डाट रही रही थी किसी ग्राहक को तुम्हारी मेहनत के एवज में कम पैसे देने पर ,
ओर मैं तुम्हारी वो डांट सुनके तुम्हारे पास आके बोला था , जो मिल रहा है रख लो अगली बार ज्यादा वसूल लेना ,
ओर तुमने कहा था : हम इतने अमीर होते तो चंद टुकड़ों के लिए टुकड़े न बेचते और अपनी मेहनत का हिस्सा लेते है और उतना ही लेंगे ज्यादा नहीं ,
ये सुनके में मेरे जहन में कपकपाया था , मुझे लगा था कैसे ये सुनने के बाद भी में वहां खड़ा होके ,तुमसे नजरे मिला पा रहा हु ,
वो चंद बाते तुम्हारी किसी की भी आँखें खोलने की तारीख है ,
में चुपचाप तुम्हे सुनता रहा उन टुकड़ों के एवज में लड़ते हुए , ओर तुम जीती भी इस मक्कार दुनिया से ,
हमेशा जीतती हो जानता हु , ओर हर रोज घुट के मरती हो ये भी जानता हु ,
न जाने क्या चीज भा गई मुझे तुम्हारे हुनर की , जो रोज तुम्हारी गली से होकर गुजरने लगा,
शायद उस शिरत की एक झलक के लिए जो मैने इंसान परस्तो के जहां में सिर्फ तुम्हारे जहन में देखी ,
याद हो तुम मुझे ओर वो दिन भी जब मैने पहली बार तुम्हे चाय के लिए पूछा था , ओर तुमने कहा था समय नहीं है ,
ओर मैने उस समय के टुकड़े तुमसे खरीदे थे , तुम्हारी कुछ झलकियां ओर अफसानों के लिए ,
तुम्हारी बातों का वो उलूज, जब तुम ठहर के बोलती थी ,
इंसान बनाया भी तो , इंसानों जैसे लिबाज में सिर्फ एक कठपुतली बना दिया है चंद मोहरों के ,
जैसे रेत फिशलती है हाथों से वैसे ही मेरे अंदर का वजूद धीरे धीरे मरते जा रहा है उस कालकोठरी में ,
जीने की आदत लगी तो है पर जीने के हसीन लम्हे कोई और चुन लेता है मेरे ,
खुश्बू ये जो इतर की महक रही है मेरे बदन से , मेरे अंदर की सड़ांध को छुपाने के लिए है बस ,
ये जो रंग रूप सजा हुआ है सिर्फ दुनिया का एक नजरिया है मेरे लिए ,
मैं अंदर से क्या - क्या हु कोई नहीं जानता , बचपन से तुम्हारा कोई घर नहीं जब तुमने ये बातों बातों में बोला था जिसका जवाब में न दे सका कभी उसका मलाल मुझे आज भी है
न जाने कब कैसे क्यों नहीं पता मुझे, पर थक जाने के बाद दुनिया के इस ओझेपन से सिर्फ तुम्हारे चंद लब्ज़ सुनने का दिल होता था जो मेरे सोई आत्मा को कुरेद देते थे ,
तुम धीरे धीरे मेरे जहन में आ गई और वही रह गई तुम्हे ये बता भी न सका ।
वैसे,
वो जमाना खरीद लिया है मैने जिसे तुम कालकोठरी कहती थी , तुम्हारी आवाजें सुनता हु इनमें , दीवारों पर लगे खरोंच के निशान जब नजर आते है मुझे
तो एक दबा हुआ इंसान फिर मर जाता है अंदर का , तुम इतनी करीब थी मेरे मैं फिर भी इस जमाने के पहिए तोड़ के तुमसे निकाह न कर पाया और आज इन चारदीवारों में तुम्हारे होने का एहसास हर घड़ी खोज रहा हु तुम्हारे दिए हुए गुलाब को मेरी कभी न पढ़ी जाने वाली किताब में रख के ।।


वो जमाना भी क्या जमाना था जब में गमगीन होके भी खुशमिजाजी में रहता था , आज एक जमीन के टुकड़े में सोया पड़ा हु ।
"वो जमाना अब मिट्टी में दबा है,
मैं भी उसी के नीचे सोया हूँ।
फर्क इतना है—वो अब भी ज़िंदा है मुझमें,
और मैं अब भी उसका क़ैदी।"
 
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