मैं बूँद नहीं, पूरा सागर हूँ,
हर लहर में मेरा ही नाम गूंजता है।
कहीं मैं पिता की आज्ञा बनकर उठता हूँ,
कहीं माँ की गोद में स्वयं को पाता हूँ।
कभी मैं बच्चे की आँखों से खेलता हूँ,
कभी वृद्ध की साँस में ठहर जाता हूँ।
कभी दीपक की लौ, कभी धुएँ का मौन,
मैं ही आरंभ हूँ, मैं ही अंत का कौन।
मैंने खुद को देखा
तो संसार बन गया।
मैंने खुद को भुला दिया,
तो सत्य प्रकट हो गया।
मैं हूँ “मैं” का विराट रूप,
जो हर देह में अपना राग गाता है।
मैं कला हूँ, स्वयं-प्रकाशित,
जो अपने ही रंग में ब्रह्मांड रचता है।
हर लहर में मेरा ही नाम गूंजता है।
कहीं मैं पिता की आज्ञा बनकर उठता हूँ,
कहीं माँ की गोद में स्वयं को पाता हूँ।
कभी मैं बच्चे की आँखों से खेलता हूँ,
कभी वृद्ध की साँस में ठहर जाता हूँ।
कभी दीपक की लौ, कभी धुएँ का मौन,
मैं ही आरंभ हूँ, मैं ही अंत का कौन।
मैंने खुद को देखा
तो संसार बन गया।
मैंने खुद को भुला दिया,
तो सत्य प्रकट हो गया।
मैं हूँ “मैं” का विराट रूप,
जो हर देह में अपना राग गाता है।
मैं कला हूँ, स्वयं-प्रकाशित,
जो अपने ही रंग में ब्रह्मांड रचता है।
मैं ही देखता हूँ, मैं ही दिखता हूँ,
मैं ही प्रश्न हूँ, मैं ही उत्तर।
एकं एव अद्वितीयम्,
यही मेरा स्वभाव, यही मेरा स्वर।


