तू रोया, हँसा, न्याय माँगता रहा,
अतीत की गठरी उठाए चलता रहा।
पर जो अभी है, वह चुप सा खड़ा,
कहता है, मैं न साक्षी, न कोई खुदा।
तेरे अपराध, तेरे पुण्य, सब तेरे हैं,
वह क्षण तो बस मौन में खरे हैं।
न उसने तेरा पक्ष सुना, न विपक्ष,
वह तो देखता है बस तेरा निस्पृह स्पर्श।
तू सोचता रहा, मैं कौन हूँ यहाँ
क्यों नहीं बोलता यह पल मेरी कथा
पर वर्तमान न भावुक है, न कठोर
वह बस है, निर्मल, अचल, संपूर्ण भोर।
तेरे शब्द, तर्क, स्मृतियाँ सब खो जाती हैं,
उसकी शांति में सब ध्वनियाँ मर जाती हैं।
न वह पूछता है, न उत्तर माँगता है,
वह बस साक्षी बन तुझे स्वयं में निहारता है।
छोड़ दे कथा, न अपराधी बन, न मसीहा,
इस क्षण में आ, न तू जल, न तू प्यासा।
जो है, वही सत्य है, वही अंतिम नाम,
वर्तमान में तू बस है, शुद्ध, मौन, निष्कलंक धाम।