न हो सिद्धि, साधन तो है
बुद्धि नहीं, न सही, पर मैंने पाया अपना मन तो है
यही बहुत जो इसे सँजोऊ
अधिक-हेतु क्यों रोऊँ-धोऊँ
सखा, सूत वा दूत न होऊँ
पर यह जन प्रभु-जन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
माना मुक्त नहीं हो पाया,
खींच मुझे यह बंधन लाया
तब भी मेरी ममता-माया
मिला मुझे नर-तन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
बाहर भी क्या आज खड़ा मैं
काले कोसों दूर पड़ा मैं
देख रहा हूँ किंतु बड़ा मैं
तेरा खुला भवन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
घेरे है घनघोर अँधेरा
छिपा मुझी से सब कुछ मेरा
किंतु आ रहा जो यह तेरा
पुण्य स्पर्श-पवन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
मेरा कंठ रुँधा है स्वामी,
पर तू तो है अंतर्यामी
रहूँ मत मैं पर-पथ-गामी
संगी चिर चेतन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
बुद्धि नहीं, न सही, पर मैंने पाया अपना मन तो है
यही बहुत जो इसे सँजोऊ
अधिक-हेतु क्यों रोऊँ-धोऊँ
सखा, सूत वा दूत न होऊँ
पर यह जन प्रभु-जन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
माना मुक्त नहीं हो पाया,
खींच मुझे यह बंधन लाया
तब भी मेरी ममता-माया
मिला मुझे नर-तन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
बाहर भी क्या आज खड़ा मैं
काले कोसों दूर पड़ा मैं
देख रहा हूँ किंतु बड़ा मैं
तेरा खुला भवन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
घेरे है घनघोर अँधेरा
छिपा मुझी से सब कुछ मेरा
किंतु आ रहा जो यह तेरा
पुण्य स्पर्श-पवन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
मेरा कंठ रुँधा है स्वामी,
पर तू तो है अंतर्यामी
रहूँ मत मैं पर-पथ-गामी
संगी चिर चेतन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो है!
साभार:-मैथिलीशरण गुप्त