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ना नर में कोई राम बचा

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Deleted member 14812

Guest
ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,

नारी में ना कोई सीता है !

ना धरा बचाने के खातिर,

विष कोई शंकर पीता है !

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,

किसी में ज्ञान बचा है!

ना हरिश्चंद्र सा सत्य,

किसी के अंदर रचा बसा है !!



न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,

न नानक जी सा परम त्याग !

बस नाच रही है नर के भीतर

प्रतिशोध की कुटिल आग !!



फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,

क्या अंश बाकि तुम में !

कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



तुम भीष्म पितामह की भांति,

अपने ही जिद पर अड़े रहे !

तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,

तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!



एक दुर्योधन फिर,

सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !

कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर

थोड़ा धर्म जगाता है !



फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की

चिंगारी से आग लगाकर!

चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



- शुभम श्याम
 
ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,

नारी में ना कोई सीता है !

ना धरा बचाने के खातिर,

विष कोई शंकर पीता है !

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,

किसी में ज्ञान बचा है!

ना हरिश्चंद्र सा सत्य,

किसी के अंदर रचा बसा है !!



न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,

न नानक जी सा परम त्याग !

बस नाच रही है नर के भीतर

प्रतिशोध की कुटिल आग !!



फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,

क्या अंश बाकि तुम में !

कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



तुम भीष्म पितामह की भांति,

अपने ही जिद पर अड़े रहे !

तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,

तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!



एक दुर्योधन फिर,

सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !

कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर

थोड़ा धर्म जगाता है !



फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की

चिंगारी से आग लगाकर!

चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



- शुभम श्याम
Nice
 
ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,

नारी में ना कोई सीता है !

ना धरा बचाने के खातिर,

विष कोई शंकर पीता है !

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,

किसी में ज्ञान बचा है!

ना हरिश्चंद्र सा सत्य,

किसी के अंदर रचा बसा है !!



न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,

न नानक जी सा परम त्याग !

बस नाच रही है नर के भीतर

प्रतिशोध की कुटिल आग !!



फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,

क्या अंश बाकि तुम में !

कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



तुम भीष्म पितामह की भांति,

अपने ही जिद पर अड़े रहे !

तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,

तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!



एक दुर्योधन फिर,

सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !

कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर

थोड़ा धर्म जगाता है !



फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की

चिंगारी से आग लगाकर!

चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



- शुभम श्याम
वैदिक काल से कलयुग का आंकलन इस कविता में जो किया गया है सत्य है, परंतु आज के परिवेश में इसी की पूजा होती है।
एक छोटी कोशिश मेरी तरफ से:

स्वयं को श्रेष्ठ बताने वाला
नरों में एक नराधम है,
सच का जिसको भय नहीं
सच में वही बस उत्तम है।

कलयुग की अब बात करें तो
छल कपट जो जानत है,
गुणी व्यक्ति उसी को जाने सब
जिसके पास नहीं ये गुण उसके ऊपर लानत है।
 
Last edited:
वैदिक काल से कलयुग का आंकलन इस कविता में को किया गया है सत्य है, परंतु आज के परिवेश में इसी की पूजा होती है।
एक छोटी कोशिश मेरी तरफ से:

स्वयं को श्रेष्ठ बताने वाला
नरों में एक नराधम है,
सच का जिसको भय नहीं
सच में वही बस उत्तम है।

कलयुग की अब बात करें तो
छल कपट जो जानत है,
गुणी व्यक्ति उसी को जाने सब
जिसके पास नहीं ये गुण उसके ऊपर लानत है।
Nice :)
 
ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,

नारी में ना कोई सीता है !

ना धरा बचाने के खातिर,

विष कोई शंकर पीता है !

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,

किसी में ज्ञान बचा है!

ना हरिश्चंद्र सा सत्य,

किसी के अंदर रचा बसा है !!



न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,

न नानक जी सा परम त्याग !

बस नाच रही है नर के भीतर

प्रतिशोध की कुटिल आग !!



फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,

क्या अंश बाकि तुम में !

कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



तुम भीष्म पितामह की भांति,

अपने ही जिद पर अड़े रहे !

तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,

तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!



एक दुर्योधन फिर,

सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !

कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर

थोड़ा धर्म जगाता है !



फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की

चिंगारी से आग लगाकर!

चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,

तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…



- शुभम श्याम
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