आज भी झीने से
उतर के
चली आती है
कमरे में तेरी यादें
बिन बुलाये
जुगनुओं की तरह,
अँधेरे में चमकती हुयी
उतार देती है
दीवारों पे
गुजरे जमाने की
कुछ धुंधली तस्वीरें,
कुछ बासी पलों की
उखड़ी उखड़ी सी लकीरे,
जिनमे से
झांकती है
एक लड़की
अपनी नम आँखों से,
मुझे देखती है
और हर बार पूछती है,
रेलवे की पटरियां
अक्सर लोगो को
जुदा क्यूँ करती है.?
शहर से दूर जाने वाली
ट्रेनें भी तो
वापस लौटती हैं,
फिर तुम
क्यूँ नहीं लौटे
अब तक
मैं कुछ बोल नहीं पाता हूँ,
बस जेब से
उसी लड़की की
एक साफ़ तस्वीर
निकाल के देखता हूँ
और रोज की तरह
घर से दूर
निकल जाता हूँ,
कुछ टूटी हुयी
रेल की पटरियों
को जोड़ने के लिए...!
उतर के
चली आती है
कमरे में तेरी यादें
बिन बुलाये
जुगनुओं की तरह,
अँधेरे में चमकती हुयी
उतार देती है
दीवारों पे
गुजरे जमाने की
कुछ धुंधली तस्वीरें,
कुछ बासी पलों की
उखड़ी उखड़ी सी लकीरे,
जिनमे से
झांकती है
एक लड़की
अपनी नम आँखों से,
मुझे देखती है
और हर बार पूछती है,
रेलवे की पटरियां
अक्सर लोगो को
जुदा क्यूँ करती है.?
शहर से दूर जाने वाली
ट्रेनें भी तो
वापस लौटती हैं,
फिर तुम
क्यूँ नहीं लौटे
अब तक
मैं कुछ बोल नहीं पाता हूँ,
बस जेब से
उसी लड़की की
एक साफ़ तस्वीर
निकाल के देखता हूँ
और रोज की तरह
घर से दूर
निकल जाता हूँ,
कुछ टूटी हुयी
रेल की पटरियों
को जोड़ने के लिए...!